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आधी रात को / फ़िराक़ गोरखपुरी

१.
सियाह पेड़ हैं अब आप अपनी परछाईं
जमीं से ता महो-अंजुम सुकूत के मीनार
जिधर निगाह करे इक अथाह गुमशुदगी
एक-एक करके अफ़सुर्दा चिरागों की पलकें
झपक गई-जो खुली हैं झपकने वाली हैं
झपक रहा है 'पुरा'चाँदनी के दर्पन में
रसीले कैफ़ भरे मंज़रों का जगता ख़्वाब
फ़लक पे तारों को पहली जमाहियाँ आई

२.
त्मोलियों की दुकानें कहीं-खनी हैं खुली
कुछ ऊँघती हुई बढ़ती हैं शाहराहों पर
सवारियों के बड़े घुँघरुओं की झंकारें
खड़ा है ओस में चुपचाप हरसिंगार का पेड़
दुल्हन हो जैसे हया की सुगंध से बोझल
ये मौजे-नूर,ये भरपूर ये खिली हुई रात
कि जैसे खिलता चला जाए इक सफ़ेद कँवल
सिपाहे-रूस हैं अब कितनी दूर बर्लिन से ?
--जगा रहा है कोई आधी रात का जादू-
छलक रही है खुमे-गैब से शराबे-वुजूद
फ़जा-ए-नीमशबी नर्गिशे-खुमार-आलूद
कँवल की चुटकियों में बंद है नदी का सुहाग

३.
ये रस की सेज,ये सुकुमार,ये कोमल गात
नैन कमल की झपक,कामरूप का जादू
ये रसमलाई पलक की घनी-घनी परछाईं
फ़लक पे बिखरे हुए चाँद और सितारों की
चमकती उँगलियों से छिड़के राज फितरत के
तराने जागने वाले हैं, तुम भी जाग उट्ठो

४.
शुआए-मेहर ने उनको चूम-चूम लिया
नदी के बीच कुमुदनी के फूल खिल उट्ठे
न मुफलिसी हो,तो कितनी हसीन है दुनिया
ये झाँय-झाँय-सी रह-रह के एक झींगुर की
हिना कि टट्टियों में नरम सरसराहट-सी
फज़ा के सीने में ख़ामोश सनसनाहट-सी
लटों में रात की देवी की थरथराहट-सी
ये कायनात अब नींद ले चुकी होगी!

५.
ये मह्वे-ख़्वाब हैं रंगीन मछलियाँ तहे-आब
कि हौज़े-सहन में अब इनकी चश्मकें भी नहीं
ये सरनिगूँ हैं सरे-शाख फूल 'गुड़हल' के
कि जैसे बेबुझे अंगारे ठंढे पड़ जायें
ये चाँदनी है कि उमड़ा हुआ है रस-सागर
इक आदमी है कि इतना दुखी है दुनिया में

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