Powered by Blogger.

भोजन प्रशंसा / अशोक चक्रधर

बागेश्वरी, हृदयेश्वरी, प्राणेश्वरी।
मेरी प्रिये !
तारीफ़ के वे शब्द
लाऊं कहां से तेरे लिये ?
जिनमें हृदय की बात हो,
बिन कलम, बिना दवात हो।

मन-प्राण-जीवन संगिनी,
अर्द्धांगिनी,
....न न न न न....पूर्णांगिनी।
खाकर ये पूरी और हलुआ,
मस्त ललुआ !

(थाली के व्यंजन गिनते हुए)
एक, दो, तीन, चार, पांच, छः, सात
बज उठी सतरंगिनी,
सतव्यंजनी-सी रागिनी।

तेरी अंगुलियां...
भव्य हैं तेरी अंगुलियां
दिव्य हैं तेरी अंगुलियां।
कोमल कमल के नाल सी,
हर पल सक्रिय
मैं आलसी।
तो...
तेरी अंगुलियां,
स्वाद का जादू बरसता,
नाचतीं मेरी अंतड़ियां।

खन खनन बरतन
किचिन में जब करें,
तो सुरों के झरने झरें।
हृदय बहता,
लगे जैसे जुबिन मेहता,
बजाए साज़ अनगिन,
ताक धिन धिन
ताक धिन धिन
ताक धिन धिन
एक आर्केस्ट्रा...
वहाँ भाजी नहीं ऐक्स्ट्रा !

यहां थाली
मसालों की महक-सी
ज्यों ही उठाती है,
लकप कर भूख
प्यारे पेट में बाजे बजाती है,
ये जिव्हा लार की गंगो-जमुन
मुख में बहाती है,
मधुर स्वादिष्ट मोहक
इंद्रधनुषों को सजाती है,
चटोरी चेतना थाली कटोरी देखकर
कविता बनाती है।
कि पूरी चंद्रमा सी
और इडली पूर्णमासी।
मन-प्रिया सी दाल वासंती,
लगे, चटनी अमृतवंती।

यही ऋषिगण कहा करते,
यही है सार वेदों का,
हमारे कॉन्स्टीट्यूशन के
सारे अनुच्छेदों का,
कि यदि स्वादिष्ट भोजन
मिले घर में,
इस उदर में
ही बना है
मोक्ष का वह द्वार,
जिसमें है महा उद्धार।
हे बागेश्वरी !
हृदयेश्वरी !!
प्राणेशवरी !!!
तेरे लिए मेरे हृदय में प्यार,
अपरंपार !

No comments:

Pages

all

Search This Blog

Blog Archive

Most Popular