Powered by Blogger.

संसार / महादेवी वर्मा

निश्वासों का नीड़, निशा का
बन जाता जब शयनागार,
लुट जाते अभिराम छिन्न
मुक्तावलियों के बन्दनवार,

तब बुझते तारों के नीरव नयनों का यह हाहाकार,
आँसू से लिख लिख जाता है ’कितना अस्थिर है संसार’!

हँस देता जब प्रात, सुनहरे
अंचल में बिखरा रोली,
लहरों की बिछलन पर जब
मचली पड़तीं किरनें भोली,

तब कलियाँ चुपचाप उठाकर पल्लव के घूँघट सुकुमार,
छलकी पलकों से कहती हैं ’कितना मादक है संसार’!

देकर सौरभ दान पवन से
कहते जब मुरझाये फूल,
’जिसके पथ में बिछे वही
क्यों भरता इन आँखों में धूल’?

’अब इनमें क्या सार’ मधुर जब गाती भँवरों की गुंजार,
मर्मर का रोदन कहता है ’कितना निष्ठुर है संसार’!

स्वर्ण वर्ण से दिन लिख जाता
जब अपने जीवन की हार,
गोधूली, नभ के आँगन में
देती अगणित दीपक बार,

हँसकर तब उस पार तिमिर का कहता बढ बढ पारावार,
’बीते युग, पर बना हुआ है अब तक मतवाला संसार!’

स्वप्नलोक के फूलों से कर
अपने जीवन का निर्माण,
’अमर हमारा राज्य’ सोचते
हैं जब मेरे पागल प्राण,

आकर तब अज्ञात देश से जाने किसकी मृदु झंकार,
गा जाती है करुण स्वरों में ’कितना पागल है संसार!’

No comments:

Pages

all

Search This Blog

Blog Archive

Most Popular