Powered by Blogger.

निश्चय / महादेवी वर्मा

कितनी रातों की मैंने
नहलाई है अंधियारी,
धो ड़ाली है संध्या के
पीले सेंदुर से लाली;

नभ के धुँधले कर ड़ाले
अपलक चमकीले तारे,
इन आहों पर तैरा कर
रजनीकर पार उतारे।

वह गई क्षितिज की रेखा
मिलती है कहीं न हेरे,
भूला सा मत्त समीरण
पागल सा देता फेरे!

अपने उस पर सोने से
लिखकर कुछ प्रेम कहानी,
सहते हैं रोते बादल
तूफानों की मनमानी।

इन बूदों के दर्पण में
करुणा क्या झाँक रही है?
क्या सागर की धड़कन में
लहरें बढ आँक रहीं हैं?

पीड़ा मेरे मानस से
भीगे पट सी लिपटी है,
डूबी सी यह निश्वासें
ओठों में आ सिमटीं हैं।

मुझ में विक्षिप्त झकोरे!
उन्माद मिला दो अपना,
हाँ नाच उठे जिसको छू
मेरा नन्हा सा सपना!!

पीड़ा टकराकर फूटे
घूमे विश्राम विकल सा;
तम बढे मिटा ड़ाले सब
जीवन काँपे दलदल सा।

फिर भी इस पार न आवे
जो मेरा नाविक निर्मम,
सपनों से बाँध ड़ुबाना
मेरा छोटा सा जीवन!

No comments:

Pages

all

Search This Blog

Blog Archive

Most Popular