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सौ दूरियों पे भी भी मिरे दिल से जुदा न थी / फ़राज़

सौ दूरियों प’ भी मेरे दिल से जुदा न थी
तू मेरी ज़िंदगी थी मगर बेवफ़ा न थी

दिल ने ज़रा से ग़म को क़यामत बना दिया
वर्ना वो आँख इतनी ज़्यादा ख़फ़ा न थी

यूँ दिल लरज़ उठा है किसी को पुकार कर
मेरी सदा भी जैसे कि मेरी सदा न थी

बर्गे-ख़िज़ाँ जो शाख़ से टूटा वो ख़ाक़ था
इस जाँ सुपुर्दगी के तो क़ाबिल हवा न थी

जुगनू की रौशनी से भी क्या भड़क उठी
इस शहर की फ़ज़ा कि चराग़ आश्ना न थी

मरहूने आसमाँ जो रहे उनको देख कर
ख़ुश हूँ कि मेरे होंठों प’कोई दुआ न थी

हर जिस्म दाग़-दाग़ था लेकिन ‘फ़राज़’ हम
बदनाम यूँ हुए कि बदन पर क़बा न थी

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