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माँ / भाग २८ / मुनव्वर राना

तुम्हारी आँखों की तौहीन है ज़रा सोचो

तुम्हारा चाहने वाला शराब पीता है


किसी दुख का किसी चेहरे से अंदाज़ा नहीं होता

शजर तो देखने में सब हरे मालूम होते हैं


ज़रूरत से अना का भारी पत्थर टूट जात है

मगर फिर आदमी भी अंदर—अंदर टूट जाता है


मोहब्बत एक ऐसा खेल है जिसमें मेरे भाई

हमेशा जीतने वाले परेशानी में रहते हैं


फिर कबूतर की वफ़ादारी पे शल मत करना

वह तो घर को इसी मीनार से पहचानता है


अना की मोहनी सूरत बिगाड़ देती है

बड़े—बड़ों को ज़रूरत बिगाड़ देती है


बनाकर घौंसला रहता था इक जोड़ा कबूतर का

अगर आँधी नहीं आती तो ये मीनार बच जाता


उन घरों में जहाँ मिट्टी के घड़े रहते हैं

क़द में छोटे हों मगर लोग बड़े रहते हैं


प्यास की शिद्दत से मुँह खोले परिंदा गिर पड़ा

सीढ़ियों पर हाँफ़ते अख़बार वाले की तरह

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