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वे दिन / महादेवी वर्मा

नव मेघों को रोता था
जब चातक का बालक मन,
इन आँखों में करुणा के
घिर घिर आते थे सावन!
किरणों को देख चुराते
चित्रित पंखों की माया,
पलकें आकुल होती थीं
तितली पर करने छाया!
जब अपनी निश्वासों से
तारे पिघलातीं रातें,
गिन गिन धरता था यह मन
उनके आँसू की पाँतें।
जो नव लज्जा जाती भर
नभ में कलियों में लाली,
वह मृदु पुलकों से मेरी
छलकाती जीवन-प्याली।
घिर कर अविरल मेघों से
जब नभमण्डल झुक जाता,
अज्ञात वेदनाओं से
मेरा मानस भर आता।
गर्जन के द्रुत तालों पर
चपला का बेसुध नर्तन;
मेरे मनबालशिखी में
संगीत मधुर जाता बन।
किस भांति कहूँ कैसे थे
वे जग से परिचय के दिन!
मिश्री सा घुल जाता था
मन छूते ही आँसू-कन।
अपनेपन की छाया तब
देखी न मुकुरमानस ने;
उसमें प्रतिबिम्बित सबके
सुख दुख लगते थे अपने।
तब सीमाहीनों से था
मेरी लघुता का परिचय;
होता रहता था प्रतिपल
स्मित का आँसू का विनिमय।
परिवर्तन पथ में दोनों
शिशु से करते थे क्रीड़ा;
मन मांग रहा था विस्मय
जग मांग रहा था पीड़ा!
यह दोनों दो ओरें थीं
संसृति की चित्रपटी की;
उस बिन मेरा दुख सूना
मुझ बिन वह सुषमा फीकी।
किसने अनजाने आकर
वह लिया चुरा भोलापन?
उस विस्मृति के सपने से
चौंकाया छूकर जीवन।
जाती नवजीवन बरसा
जो करुणघटा कण कण में,
निस्पन्द पड़ी सोती वह
अब मन के लघु बन्धन में!
स्मित बनकर नाच रहा है
अपना लघु सुख अधरों पर;
अभिनय करता पलकों में
अपना दुख आँसू बनकर।
अपनी लघु निश्वासों में
अपनी साधों की कम्पन;
अपने सीमित मानस में
अपने सपनों का स्पन्दन!
मेरा अपार वैभव ही
मुझसे है आज अपरिचित;
हो गया उदधि जीवन का
सिकता-कण में निर्वासित।
स्मित ले प्रभात आता नित
दीपक दे सन्ध्या जाती;
दिन ढलता सोना बरसा
निशि मोती दे मुस्काती।
अस्फुट मर्मर में, अपनी
गति की कलकल उलझाकर,
मेरे अनन्तपथ में नित-
संगीत बिछाते निर्झर।
यह साँसें गिनते गिनते
नभ की पलकें झप जातीं;
मेरे विरक्तिअंचल में
सौरभ समीर भर जातीं।
मुख जोह रहे हैं मेरा
पथ में कब से चिर सहचर!
मन रोया ही करता क्यों
अपने एकाकीपन पर?
अपनी कण कण में बिखरीं
निधियाँ न कभी पहिचानीं;
मेरा लघु अपनापन है
लघुता की अकथ कहानी।
मैं दिन को ढूँढ रही हूँ
जुगनू की उजियाली में;
मन मांग रहा है मेरा
सिकता हीरक प्याली में!

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