Powered by Blogger.

माँ / भाग २४ / मुनव्वर राना

तलवार तो क्या मेरी नज़र तक नहीं उठ्ठी

उस शख़्स के बच्चों की तरफ़ देख लिया था


रेत पर खेलते बच्चों को अभी क्या मालूम

कोई सैलाब घरौंदा नहीं रहने देता


धुआँ बादल नहीं होता कि बचपन दौड़ पड़ता है

ख़ुशी से कौन बच्चा कारखाने तक पहुँचता है


मैं चाहूँ तो मिठाई की दुकानें खोल सकता हूँ

मगर बचपन हमेशा रामदाने तक पहुँचता है


हवा के रुख़ पे रहने दो ये जलना सीख जाएगा

कि बच्चा लड़खड़ाएगा तो चलना सीख जाएगा


इक सुलगते शहर में बच्चा मिला हँसता हुआ

सहमे—सहमे—से चराग़ों के उजाले की तरह


मैंने इक मुद्दत से मस्जिद नहीं देखी मगर

एक बच्चे का अज़ाँ देना बहुत अच्छा लगा


इन्हें अपनी ज़रूरत के ठिकाने याद रहते हैं

कहाँ पर है खिलौनों की दुकाँ बच्चे समझते हैं


ज़माना हो गया दंगे में इस घर को जले लेकिन

किसी बच्चे के रोने की सदाएँ रोज़ आती हैं

No comments:

Pages

all

Search This Blog

Blog Archive

Most Popular