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अब वो झोंके कहाँ सबा जैसे / फ़राज़

अब वो झोंके कहाँ सबा[1] जैसे
आग है शह्र की हवा जैसे

शब[2] सुलगती है दोपहर की तरह
चाँद, सूरज से जल-बुझा जैसे

मुद्दतों बाद भी ये आलम[3] है
आज ही तू जुदा हुआ जैसे

इस तरह मंज़िलों से हूँ महरूम[4]
मैं शरीक़े-सफ़र[5] न था जैसे

अब भी वैसी है दूरी-ए-मंज़िल[6]
साथ चलता हो रास्ता जैसे

इत्तिफ़ाक़न[7] भी ज़िंदगी में ‘फ़राज़’
दोस्त मिलते नहीं ‘ज़िया’[8] जैसे

शब्दार्थ
1 हवा 2 रात्रि 3दशा 4वंचित 5यात्रा का साथी 6गन्तव्य 7सहसा, अकस्मात्
8 प्रकाश(‘फ़राज़’ ने अपने मित्र जियाउद्दीन ‘ज़िया’ के किए संकेत किया है)

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