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33. तुझे कैसे भूल जाऊँ

अब उम्र का ढलान उतरते हुए मुझे
आती है तेरी याद, तुझे कैसे भूल जाऊं।

गहरा गए हैं खूब धुँधलके निगाह में
गो राहरो नहीं है कहीं, फिर भी राह में-
लगते हैं चंद साए उभरते हुए मुझे
आती है तेरी याद, तुझे कैसे भूल जाऊँ।

फैले हुए सवाल-सा सड़कों का जाल है,
ये शहर हैं उजाड़, या मेरा ख़याल है,
सामने-सफ़ बांधते-धरते हुए मुझे
आती है तेरी याद, तुझे कैसे भूल जाऊँ।

फिर पर्वतों के पास विछा झील का पलंग
होकर निढाल, शाम बजाती है जलतरंग,
इन रास्तों से तन्हा गुज़रते हुए मुझे
आती है तेरी याद, तुझे कैसे भूल जाऊँ।

उन सिलसिलों की टीस अभी तक है घाव में,
थोड़ी-सी आँच और बची है अलाव में,
सजदा किसी पड़ाव में करते हुए मुझे
आती है तेरी याद, तुझे कैसे भूल जाऊँ।

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