4. एक सफ़र पर
और
मैं भी
कहीं पहुंच पाने की जल्दी में हूँ-
एक यात्री के रूप में,
मेरे भी
तलुओं की खाल
और सिर की सहनशीलता
जवाब दे चुकी है
इस प्रतीक्षा में, धूप में,
इसलिए मैं भी
ठेलपेल करके
एक बदहवास भीड़ का अंग बन जाता हूँ,
भीतर पहुँचकर
एक डिब्बे में बंद हो पाने के लिए
पूरी शक्ति आज़माता हूँ ।
...मैं भी
शीश को झुकाकर और
पेट को मोड़कर,
तोड़ने की हद तक
दोनों घुटने सिकोड़कर
अपने लवाज़मे के साथ
छोटी-सी खिड़की से
अंदर घुस पड़ता हूँ,
ज़रा-सी जगह के लिए
एड़ियाँ रगड़ता हूँ ।
बहुत बुरी हालत है, डिब्बे में
बैठे हुओं को
हर खड़ा हुआ व्यक्ति शत्रु,
खड़े हुओं को बैठा हुआ बुरा लगता है
पीठ टेक लेने पर
मेरे भी मन में
ठीक यही भाव जगता है ।
मैं भी धक्कम-धू में
हर आने वाले को
क्रोध से निहारता हूँ,
सहसा एक और अजनबी के बढ़ जाने पर
उठकर ललकारता हूँ।
किन्तु वह नवागंतुक
सिर्फ़ मुस्कराता है।
इनाम और लाटरियों का
झोला उठाए हुए
उसमें से टार्च और ताले निकालकर
दिखाता है ।
वह कोई साधारण व्यक्ति नहीं
वह सबको भाषण पिलाता है,
बोलियाँ लगाता-लगवाता है,
पलभर में जनता पर जादू कर जाता है।
और मैं उल्लू की तरह
स्वेच्छया कटती जेबों को देखकर
खीसें निपोरता हुआ बैठ जाता हूँ ।
जैसे मेरा विवेक ठगा गया होता हैं।
वह जैसे कहीं एक ताला
मेरे भीतर भी लगा गया होता है।
थोडी देर बाद
तालों ओर टार्चों को
देखते-परखते हैं लोग
मुँह गालियों से भरकर,
जेब और सीनों पर हाथ धरकर ।
आखिर बक-झककर थक जाते हैं
फिर..
यात्रा में वक़्त काटने के लिए
बाज़ारू-साहित्य उठाते हैं,
या एक दुसरे की ओर ताकते हैं,
ज़नाने डिब्बों में झाँकते हैं।
लोग : चिपचिपाए, हुए,
पसीनों नहाए हुए,
डिब्बे में बंद लोग !
बडी उमस है-आह !
सुख से सो पाते हैं, इने-गिने चंद लोग !
पूरे का पूरा वातावरण है उदास ।
अजीब दर्द व्याप्त है :
बेपनाह दर्द
बेहिसाब आँसू
गर्मी ओर प्यास !
एक नितांत अपरिचित रास्ते से
गुज़रते हुए पा-पी पा-पी
पहियों की खड़खड़ की कर्कश आवाज़ें,
रेल की तेज़ रफ़्तार,
धक-धक धुक-धुक
चारों ओर :
जिसमें एक दूसरे की भावनाएँ क्या
बात तक न सुनी ओर समझी जा सके :
ऐसा शोर :
आपाधापी
और एक दुसरे के प्रति गहरा संशय
और उसमें
बार-बार लहराती
लंबी ओर तेज़-सी सीटी
जैसे कोई इंजन के सामने आ जाए... !
(भारतीय रेल में
हर क्षण दुर्घटना का भय)
हर क्षण ये भय...
कि अभी ऊपर से कुछ गिर पड़ेगा !
पटरी से ट्रेन उतर जाएगी !
हर क्षण ये सोच
कि अभी सामने वाला
कुछ उठाकर ले भागेगा,
मेरा स्थान कोई और छीन लेगा।
...और सुरक्षा का एकमात्र साधन
अपने स्थान से चिपक जाना,
कसकर चिपक जाना ।
बाहर के दृश्य नहीं,
ऊपर की बर्थ पर रखे सामान पर
नज़र रखना,
खुली हुई क़ीमती चीज़ों को
दिखलाकर ढंकना।
बहन और बच्चों को
फुसफुसाहट भरे उपदेशों से भर देना,
अपने प्रति
इतना सजग ओर जागरूक कर देना
कि वे भविष्य में अकेले सफ़र कर सकें।
इसी तरह अपने स्थान पर चिपके
शंकित और चौकन्ने होकर
हर अजनबी से डर सकें ।
यात्रा में लोग-बाग
सचमुच डराते हैं ।
आँखों में एक विचित्र मुलायम-सी
हिंस्र क्रूरता का भाव लिये--
एक दूसरे का गंतव्य पूछते हुए
दोस्ती का हाथ बढ़ाते हैं,
सहमकर मुस्कराते हैं,
सोचते हैं...
किसी पास वाले स्टेशन पर
ये सब लोग क्यों नहीं उतर जाते हैं ?
मैं भी
कहीं पहुंच पाने की जल्दी में हूँ-
एक यात्री के रूप में,
मेरे भी
तलुओं की खाल
और सिर की सहनशीलता
जवाब दे चुकी है
इस प्रतीक्षा में, धूप में,
इसलिए मैं भी
ठेलपेल करके
एक बदहवास भीड़ का अंग बन जाता हूँ,
भीतर पहुँचकर
एक डिब्बे में बंद हो पाने के लिए
पूरी शक्ति आज़माता हूँ ।
...मैं भी
शीश को झुकाकर और
पेट को मोड़कर,
तोड़ने की हद तक
दोनों घुटने सिकोड़कर
अपने लवाज़मे के साथ
छोटी-सी खिड़की से
अंदर घुस पड़ता हूँ,
ज़रा-सी जगह के लिए
एड़ियाँ रगड़ता हूँ ।
बहुत बुरी हालत है, डिब्बे में
बैठे हुओं को
हर खड़ा हुआ व्यक्ति शत्रु,
खड़े हुओं को बैठा हुआ बुरा लगता है
पीठ टेक लेने पर
मेरे भी मन में
ठीक यही भाव जगता है ।
मैं भी धक्कम-धू में
हर आने वाले को
क्रोध से निहारता हूँ,
सहसा एक और अजनबी के बढ़ जाने पर
उठकर ललकारता हूँ।
किन्तु वह नवागंतुक
सिर्फ़ मुस्कराता है।
इनाम और लाटरियों का
झोला उठाए हुए
उसमें से टार्च और ताले निकालकर
दिखाता है ।
वह कोई साधारण व्यक्ति नहीं
वह सबको भाषण पिलाता है,
बोलियाँ लगाता-लगवाता है,
पलभर में जनता पर जादू कर जाता है।
और मैं उल्लू की तरह
स्वेच्छया कटती जेबों को देखकर
खीसें निपोरता हुआ बैठ जाता हूँ ।
जैसे मेरा विवेक ठगा गया होता हैं।
वह जैसे कहीं एक ताला
मेरे भीतर भी लगा गया होता है।
थोडी देर बाद
तालों ओर टार्चों को
देखते-परखते हैं लोग
मुँह गालियों से भरकर,
जेब और सीनों पर हाथ धरकर ।
आखिर बक-झककर थक जाते हैं
फिर..
यात्रा में वक़्त काटने के लिए
बाज़ारू-साहित्य उठाते हैं,
या एक दुसरे की ओर ताकते हैं,
ज़नाने डिब्बों में झाँकते हैं।
लोग : चिपचिपाए, हुए,
पसीनों नहाए हुए,
डिब्बे में बंद लोग !
बडी उमस है-आह !
सुख से सो पाते हैं, इने-गिने चंद लोग !
पूरे का पूरा वातावरण है उदास ।
अजीब दर्द व्याप्त है :
बेपनाह दर्द
बेहिसाब आँसू
गर्मी ओर प्यास !
एक नितांत अपरिचित रास्ते से
गुज़रते हुए पा-पी पा-पी
पहियों की खड़खड़ की कर्कश आवाज़ें,
रेल की तेज़ रफ़्तार,
धक-धक धुक-धुक
चारों ओर :
जिसमें एक दूसरे की भावनाएँ क्या
बात तक न सुनी ओर समझी जा सके :
ऐसा शोर :
आपाधापी
और एक दुसरे के प्रति गहरा संशय
और उसमें
बार-बार लहराती
लंबी ओर तेज़-सी सीटी
जैसे कोई इंजन के सामने आ जाए... !
(भारतीय रेल में
हर क्षण दुर्घटना का भय)
हर क्षण ये भय...
कि अभी ऊपर से कुछ गिर पड़ेगा !
पटरी से ट्रेन उतर जाएगी !
हर क्षण ये सोच
कि अभी सामने वाला
कुछ उठाकर ले भागेगा,
मेरा स्थान कोई और छीन लेगा।
...और सुरक्षा का एकमात्र साधन
अपने स्थान से चिपक जाना,
कसकर चिपक जाना ।
बाहर के दृश्य नहीं,
ऊपर की बर्थ पर रखे सामान पर
नज़र रखना,
खुली हुई क़ीमती चीज़ों को
दिखलाकर ढंकना।
बहन और बच्चों को
फुसफुसाहट भरे उपदेशों से भर देना,
अपने प्रति
इतना सजग ओर जागरूक कर देना
कि वे भविष्य में अकेले सफ़र कर सकें।
इसी तरह अपने स्थान पर चिपके
शंकित और चौकन्ने होकर
हर अजनबी से डर सकें ।
यात्रा में लोग-बाग
सचमुच डराते हैं ।
आँखों में एक विचित्र मुलायम-सी
हिंस्र क्रूरता का भाव लिये--
एक दूसरे का गंतव्य पूछते हुए
दोस्ती का हाथ बढ़ाते हैं,
सहमकर मुस्कराते हैं,
सोचते हैं...
किसी पास वाले स्टेशन पर
ये सब लोग क्यों नहीं उतर जाते हैं ?
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