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3. उपक्रम

सृजन नहीं
भोग की क्षणिक अकांक्षाओं ने
उदासीन ममता के दर्द से कलपते हुए
मेरा अस्तित्व रचा : निरुपाय !
बचपन ने चलना सिखाने के लिए
मुझे पृथ्वी पर दूर तक घसीटा ।

मेरा जन्म
एक नैसर्गिक विवशता थी :
दुर्घटना :
आत्म-हत्यारी स्थितियों का समवाय !
मुझे अनुभव के नाम पर परिस्थिति ने
कोड़ों से पीटा।

मेरे भीतर और बाहर
खून के निशान छोड़ती हुई आँधियाँ गुज़रीं,
और मैं
काँधे पर सलीब की तरह
ज़िंदगी रखे...आगे बढा।

मैंने देखा-
मेरे आगे ओर पीछे किसी ने
दिशा-दंशी सर्प छोड़ दिए थे !
मैंने हर चौराहे पर रुककर
आवाज़ें दीं
खोजा
उन लोगों को
जो मुझको ईसा बनाने का वादा किए थे !

इतिहास मेरे साथ न्याय करे !
मैंने एक ऐसी तलाश को जीवन-दर्शन बनाया
जो मुझको ठेलते जाने में
सुख पाती है,
एक ऐसी सड़क को मैंने यात्रा-पथ चुना
जो मिथ्याग्रहों से निकलती हुई आती है।
एक नीम का स्वाद मेरी भाषा बना
जो सिर्फ़ तल्ख़ी का नाम है।
एक ऐसा अपवाद मेरा अस्तित्व
जो मेरे नियन्त्रण से परे
एक जंगल की शाम है।

सृष्टि के अनाथालय में मैंने
जीने के बहाने तलाशने में
मित्रों को खो दिया !
भूखे बालकों-सी बिलखती मर्यादाएँ देखीं,
बाज़ारू लड़कियों-सी सफलताएँ सीने से
चिपटा लीं,
मुझमें दहकती रहीं एक साथ कई चिताएँ,
धरती ओर आकाश के बीच
कई-कई अग्निर्यो में
गीले ईंधन की तरह मैं सुलगता रहा,
निरर्थक उपायों में अर्थवत्ता निहारता हुआ;
कंठ की समूची सामर्थ्य
और
थोड़े से शब्दों की पूँजी के बल पर
अपनी निरीहता सहलाता हुआ !
जीने से ज़्यादा तकलीफ़देह
क्या होगी मृत्यु !

इतिहास मेरे साथ न्याय करे !
मैंने हर फ़ैसला उस पर छोड़ दिया है।
मैंने स्वार्थों की वेदी पर
नर-बलियाँ दी हैं
और तीर्थों में दान भी किए हैं,
मुझसे हुई हैं भ्रुण-हत्याएँ
मैंने मूर्तियों पर जल भी चढ़ाए हैं,
परिक्रमाएँ भी की हैं,
मेरी पीड़ा यह है--
मैंने पापों को देखा है,
भोगा है,
हुआ है,
किया नहीं,
मैं हूँ अभिशप्त
उस वध-स्थल की तरह
जिसमें रक्तपात होना था : हुआ,

लेकिन
मैं कर्त्ता नहीं था कहीं !
जीवन भर उपक्रम रहा हूँ एक,
अर्थ नहीं ।
इतिहास मेरे साथ न्याय करे ।

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