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2. यात्रानुभूति

कितना कठिन हो गया है
किसी एक गाँव से गुज़रकर आगे जाना !

ओसारों में बैठे हुए बूढ़े बर्राते हैं,
लोटे में जल भरकर महरियाँ नहीं आतीं
स्वागत नहीं करते बच्चे-राहगीरों पर
कुत्ते लहकाते हैं।

इस ठहरी और सड़ी हुई गरमी में
कहीं भी पड़ाव नहीं मिलते।
अंधेरे में दिखते नहीं दूर तक चिराग़ !
थके हुए पाँवों के ज़ख्म
जलती हुई रेत में सुस्ताते हैं।

यक-ब-यक-तेज़ी से बदल गए हैं
गाँवों के पनघट और सुन्दरियों की तरह
-सारे रिवाज़
यात्रा में आज
अर्थ भले हो, लेकिन मज़ा नहीं।
लोग-बाग फिर भी
एक गाँव से दूसरे गाँव को जाते हैं।

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