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7. सुबह : समाचार-पत्र के समय

सुनह-सुबह चाय पर
जबकि हवा होती है-खुनक,
लोग,
समाचार-पत्रों के पन्नों में,
सरसरी नज़र से
युद्ध, विद्रोह, सत्ता-परिवर्तन, अन्न संकट
और
देशी-विदेशी समस्याएँ पढ़ते हैं,
तब भी मैं पाठक नहीं होता।

आँगन में नयी खिली कली,
और द्वार पर निमंत्रण की पुर्ज़ी-सी धूप पड़ी रहती है,
बालों में खोंसकर गुलाब
घर के सामने से गुज़रती हैं सुंदरियाँ,
रंगों के साथ तैर जाते हैं आँखों में साड़ियों के
कई-कई रूप--
किन्तु मुखर नहीं होती है कल्पना :
चाय का प्याला संभाले
एक सेर गेहूँ या चावल के लिए
सस्ते अनाज की दुकान पर क़तारों में
अपने को खड़ा हुआ पाता हूँ,
अथवा
संत्रस्त और युद्धग्रस्त देशों की प्रजा की जमात में-
खड़ा हुआ सोचता हूँ-
कितने खुशकिस्मत थे पहले ज़माने के कवि
अपनी परिस्थिति से बचकर आकाश ताक सकते थे ।

सच है--
हमारे लिए भी कल्पनाओं के आश्रम खुले हैं,
किन्तु
चौंकाती नहीं हैं दुर्घटनाएँ,
कितना स्वीकार्य और सहज तो गया है परिवेश
कि सत्य
चाहे नंगा होकर आए, दिखता नहीं है।
लोग मंत्रियों के वक्तव्य पढ़ते हैं
"देश पर अब कोई संकट नहीं है'
और खुशी से उछल पड़ते हैं।
मुनाफ़े की मूर्तियाँ गढ़ते हैं।
(आह ! कल्पना पर भी मंत्रियों और व्यापारियों का
एकाधिपत्य है)
मुझमें उत्साह (कल्पना की उड़ान का)
नहीं जागता,
न मैं प्रयत्न कर पाता हूँ-!
उल्टे ये होता है
जबकि कहीं रोगों और मौतों की चर्चा निकलती है
तो सबसे पहला रोगी
और मुरदा-मैं खुद को पाता हूँ।

ईश्वर बेहतर जानता है-
मेरी कल्पना को
जाने किस दृश्य या घटना ने
विदीर्ण कर दिया है-;
आज
कोई भी, कैसे भी अधरों का संबोधन मुझे नहीं छूता,
दृष्टि नहीं बाँधता किसी का सौंदर्य
और मैं प्रकृति से भिन्न स्थिति में
भाषा को भोगता हूँ,
शब्दों और अर्थों से परे-एक भाषा
जो श्रव्य नहीं,
जिसके संदर्भ-बहुल अनुभव
मैं जीता हूँ, जीने के लिए विवश होता हूँ...सुबह-सुबह...
चाय की टेबिल पर, समाचार-पत्रों में,
जबकि लोग... ।

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