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डॉ० जीवन प्रकाश जोशी के हाइकु

बुझा सूरज
क्षितिज की आड़ में
हँसी रजनी।

कुहासे में से
निकलती किरण
जैसे जयश्री।

मैंने उगाया
वे उगे, फले नहीं
काँटों-से चुभे।

सर्पिल राह
आकाशगंगा हुई
जितनी चली।

तूफान उठा
उखड़े ऊँचे पेड़
जमी है घास।

फुनगी पर
फुदकी बैठी, मानो
मेरी उमंग।

आ पतझर
आ, गिरा पीले पात
ला हरापन।

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