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कुँअर बेचैन

आषाढ़ माह
उगी मन-मोर में
नृत्य की चाह

पहला मेह
भीतर तक भीगी
गोरी की देह

पहला मेह
या प्रिय के मन से
छलका स्नेह

हुई अधीर
मेघ ने छुआ जब
नदी का नीर

देखे थे ख़्वाब
भर दिए मेघों ने
सूखे तालाब

भरे ताल
पास खड़े पेड़ भी
हैं खुशहाल

लिक्खे सर्वत्र
आसुओं की बूँदों से
पेड़ों ने पत्र

जलतरंग
जल बना, तर भी -
बना मृदंग

ये नन्ही नाव
काग़ज़ में बैठे हैं
बच्चों के भाव

पूरा आकाश
दे गया कृषकों को
जीने की आश

छतरी खुली
छूट रही हाथ से
ये चुलबुली

भीगी सड़क
फिसल मत जाना
ओ बेधड़क

चौपालों पर
गूँज उठे हैं ऊँचे
आल्हाके स्वर

इंद्रधनुष
बिखरा कर रंग
कितना खुश

पानी की प्यास
धरा हो या गगन
सबके पास

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