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योगेन्द्र वर्मा

कुआँ गाँव का
करता मुखबिरी
रिश्तों के बीच

धुएँ की पर्ते
मसालों से महकी
संझा गाँव की

सूरज झाँके
काले मेघों के बीच
लगा ढिठौना

आँखों को देख
पढ़ लेती मन को
आज भी अम्मा

चाटती रही
समय की दीमक
उम्र की डोर

लड़ता रहा
रात भर अलाव
ठण्ड के साथ

फटेहाल माँ
कवच आशीष का
बेटे पे सदा

फूले पलाश
सिन्दूरी वसन में
जोगन धरा

बीनते रहे
सुखों की कतरन
गुजरी उम्र

बूढ़ा ढूँढता
घर के कचरे में
सुई प्रेम की

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