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अंतिम यात्रा / अरुण कुमार

अर्थी उठने में देरी हो रही है। अन्तिम यात्रा में शामिल होने वालों की भीड़ घर के बाहर जमा है। वर्मा को बीड़ी की तलब उठी तो वह शर्मा की बाँह पकड़कर एक तरफ को ले चला। थोड़ी दूर जाकर वर्मा ने बंडल निकाला-- “यही जीवन का सबसे बड़ा सच है जी! यही सच है…!”

शर्मा ने एक बीड़ी पकड़ते हुए कहा-- “हाँ भाई साहब, एक दिन सभी को जाना है।”

“अब देर किस बात की हो रही है?” --वर्मा ने वर्मा ने बंडल वापस जेब के हवाले किया।

“बड़ा लड़का आ रहा है बंगलोर से। हवाई जहाज से आ रहा है। सुना है कि उसका फोन आ गया है, बस पाँच-सात मिनट में पहुँचने ही वाला है।” --शर्मा ने अपनी बीड़ी के दोनों छोर मुँह में डालकर हल्की-हल्की फूँक मारीं।

“लो जी, अब इसके बालकों को तो सुख ही सुख है…सात पीढ़ियों के लिए जोड़कर जा रहा है अगला।” --वर्मा ने माचिस में से एक सींक निकालकर जलाई।

“और क्या जी, इसे कहते हैं जोड़े कोई और खाए कोई। साले ऐश करेंगे... ऐश!” --वर्मा द्वारा जलाई सींक से शर्मा की बीड़ी भी जल उठी।

“भाई साहब, अब उन सब घोटालों और इंक्वारियों का क्या होगा जो इनके खिलाफ चल रही हैं?” --वर्मा ने गहरा काला धुँआ बाहर उगला।

“अजी होना क्या है। जीवन की फ़ाइल बन्द होते ही सब घोटालों-इंक्वारियों की फ़ाइलें भी बन्द हो जानी हैं। आखिर मुर्दे से तो वसूलने से रहे…” --शर्मा ने जो धुँआ उगला, वह वर्मा द्वारा उगले गये धुँए में मिलकर एक हो गया।

“वैसे भाई साहब, नौकरी करने का असली मजा भी ऐसे ही महकमों में है…क्यों?” --वर्मा ने गहरे असन्तोष-भरा धुँआ अपने फेफड़ों से बाहर उगला।

“और क्या जी, असली जिन्दगी ही लाखों कमाने वालों की है। अब, ये भी कोई जिन्दगी है कि सुबह से शाम तक माथा-पच्ची करके भी केवल पचास-सौ रुपए ही बना पाते हैं। हम तो अपना ईमान भी गँवाते हैं और मजे वाली बात भी नहीं...” --शर्मा ने भी अपना सारा असन्तोष धुँए के साथ बाहर उगल दिया।

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