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अभिषेक जैन

गरजे मेघ
सहम कर काँपी
कच्ची दीवार

रवि चढ़ाये
निर्मल किरणों से
धरा को अर्घ्य

आ के पसरी
थकी हारी किरण
धरा की गोद

खुली आँखों ने
जीवन भर देखे
बन्द सपने

कटते तरु
उजड़ा आशियाना
रोये पखेरू

करे तलाश
टार्च लिये जुगुनू
छुपी धूप को

धूप जलाये
नकचढ़ी बदरी
ठेंगा दिखाये



बच्चे पतंग
माँ-बाप थामे डोर
छूते गगन

तन माटी का
फिर कैसा गुमान
कद काठी का

उड़ा पखेरू
देखता रह गया
ठगा सा तरु

डाकिया चला
बाँटने सुख-दुख
भर के झोला

हो गई चोरी
संस्कारों की तिजोरी
लुट गया मैं

मैया की आई
वृद्धाश्रम से चिट्ठी
कैसे हो बेटा !

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