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24. विदा के बाद : प्रतीक्षा

परदे हटाकर करीने से
रोशनदान खोलकर
कमरे का फ़र्नीचर सजाकर
और स्वागत के शब्दों को तोलकर
टक टकी बाँधकर बाहर देखता हूँ
और देखता रहता हूँ मैं।

सड़कों पर धूप चिलचिलाती है
चिड़िया तक दिखायी नहीं देती
पिघले तारकोल में
हवा तक चिपक जाती है बहती-बहती,
किन्तु इस गर्मी के विषय में किसी से
एक शब्द नहीं कहता हूँ मैं।

सिर्फ़ कल्पनाओं से
सूखी और बंजर ज़मीन को खरोंचता हूँ
जन्म लिया करता है जो (ऐसे हालात में)
उसके बारे में सोचता हूँ
कितनी अजीब बात है कि आज भी
प्रतीक्षा सहता हूँ मैं।

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