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नवल किशोर बहुगुणा के हाइकु

पेड करते
अनुलोम विलोम
संग हवा के।

मेघ बरसा
नदी को पर लगे
उडी सहसा।

बरसे घन
नदी ने तोड़ डाले
तट बंधन।

अंकुर फूटा
बंजर अधरों पे
गीत सरीखा।

डिम्ब फोड के
गहन तिमिर का
चहकी भोर ।

बीते बरस
पीते हुए गीतों का
गाजा चरस।

पंछी चहके
हरियल फुनगी
इच्छा बहके।

हुई सुबह
सृष्टि करने लगी
स्वस्तिवाचन।

निकला चाँद
गहन अंतस से
जैसे कविता।

जाडे़ की धूप
मूगफली बीनती
छत पे बैठ।

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